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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Tuesday 28 August 2012

कहीं मैं चरित्र हीन तो नहीं?

मैंने अपने बारे में लिखने का निर्णय लिया है, अल्पकाल में ही कई जन्मों के बराबर अनुभव हुआ है, इसलिए किश्त के रूप में ही आपके सामने रख पाऊँगा, पड़ोसन और सहकर्मी के अलावा बस, ट्रेन सहित हर जगह छिछोरी हरकतें करने वाले दो विवाह करने वाले व्यक्ति की आलोचना ही नहीं करते, बल्कि उसे प्रमाणित चरित्रहीन करार दे देते हैं, आज इसी मुद्दे पर मैं स्वयं को आपके सामने रखने का प्रयास करूंगा, कक्षा नौ से बताना शुरू करता हूँ, उससे पहले मुझे लिंग भेद के बारे में जानकारी नहीं थी, इसी उम्र में मेरा बाहर निकलना, उठना-बैठना आंशिक रूप से शुरू हुआ, इससे पहले जेल रूपी घर की चाहरदीवारी में लड़कियों की तरह ही रहता था, जहाँ जोर से सांस लेना भी नियम के विरुद्ध था, छत तक पर जाने की अनुमति नहीं थी, शायद, इसीलिए पत्रकार पैदा हो गया, धीरे-धीरे पापा की व्यस्तता बढती गई, तो मेरी आजादी का दायरा भी बढता गया, शुरू में घर से बाहर आते ही मुझे सब अजीब सा लगता था, मुझ से दोगुनी उम्र की लड़कियां मुझे छेड़ती थीं, पर मुझे कुछ भी नहीं होता था, हम उम्र लड़कियां राह चलते लेटर फेंकती थीं, छोटे-छोटे बच्चों से भेजती थीं, मैं खोल कर पढता तक नहीं था, यह भी डर था कि पापा को पता चल गया तो जान से ही मार देंगे, अकेला पुत्र होने के बावजूद उन्हें वैसा मोह कभी नहीं रहा, मम्मी और दादी की सात्विकी कहानियों का भी प्रभाव माना जा सकता है, कक्षा दस में पहुंचा तो चीजें समझ में आने लगीं, कालेज एक ही था, सो कक्षा में लड़के-लड़कियों की संख्या बराबर ही थी, अधिकाँश लड़के मजनूँ की तरह किसी न किसी के पीछे लगे ही रहते थे, पर उन लड़कियों में भी अधिकाँश मेरे पीछे रहती थीं, टेबल पर किताबें छोड़ कर पेशाब करने भी जाता था, तो उतनी ही देर में हर कापी और हर किताब में कई-कई लेटर घुसे मिलते, मुझे यह सब वाकई बहुत बुरा लगता था, कई लड़कियों को मैंने एकांत में तो कईयों को सार्वजनिक तौर पर लताड़ा, पर कुछ नहीं बदला, सब वैसे ही चलता रहा, जो हाल कालेज का था, वही हाल मोहल्ले का, तभी रक्षाबंधन आ गया, उस समय स्वर्गीय यादराम नाम के एक बुजुर्ग रहते थे, उनको उस समय मैं सगा बाबा ही मानता था, बचपन से उनके पास ही अधिक खेला था, सो उनसे सब कुछ कह देता था, उन्हीं से कहा कि बाबा मैं मोहल्ले की सब लड़कियों से राखी बंधवाना चाहता हूँ, उन्होंने में यही कहा कि यह तो अच्छी बात है, बंधवाओ, वही यादराम बाबा पापा से रूपये लेकर आये और सब लड़कियों को भी उन्हीं ने बुलाया, सब से राखी बंधवाई और मैंने फोटोग्राफी भी कराई, लेकिन एक लड़की राखी बांधे बिना ही भाग गई, उसे बाबा ने ही सही कर दिया, अब मैं पूरे मोहल्ले का भैया हो गया, लड़कियों के मन का भाव बदल गया, पर वह भैया रूप में ही सानिध्य चाहती थीं, सो बीच-बीच में मैं उन्हें कहानी-किस्से और चुटकुले सुनाता रहता था, इसी बीच मेरी नज़र जूनियर लड़की पर पड़ गई, बहुत सुन्दर नहीं थी, नटखट भी नहीं थी, वह एक दम शांत थी, मैं सब कुछ भूल कर उसमें ही रम गया, कुछ ही दिनों में मैंने उसकी पूरी दिनचर्या रट ली, वह जब सुबह को उठ कर सीधे खिडकी पर आती, तो सामने मैं दस मिनट पहले से इन्तजार करता नज़र आता और वो रोज मुझे देखते ही खिडकी के दरवाजे पटक के पलट के भागती थी, स्नान आदि के बाद जैसे ही जल का लोटा लेकर मंदिर को निकलती, वैसे ही नुक्कड़ पर मैं नज़र आता और वो रोज ऐसे मुंह बना के जाती, जैसे अपशकुन हो गया हो, कालेज को जाती, तो बीस कदम पीछे कदम ताल करता हुआ मैं भी उसके पीछे ही जाता और वो भागने वाली अवस्था में कालेज में घुस कर ही चैन की सांस लेती, कालेज के बाद खाना खाकर वो शाम को छत पर आती, तो मैं पहले से ही अपनी छत पर बैठा मिलता, रोज की तरह ही वो मेरी तरफ को कमर कर के बैठ जाती और अन्धेरा होते ही चली जाती, तीन साल तक यही सब चलता रहा, प्यार की बात तो छोडिये, उसने कभी गाली भी नहीं दी, हालांकि निहारने के अलावा मैंने भी कभी और कुछ नहीं किया, तीन साल के बाद जून की छुट्टियों में उसकी मौसेरी बहन एक महीने को रहने आ गई, वो सेल्फ स्टार्ट थी और मेरे पीछे पड़ गई, मैंने उसमें कोई रूचि नहीं दिखाई, एक दिन मैं अपने खेतों में घूम रहा था और वह दोनों अपने खेतों में, दो किमी का अंतर था, लेकिन उसकी मौसेरी बहन मेरे पास आ गई और आकर बोली, वो भी तुमसे बहुत प्यार करती है, पर बता नहीं पा रही है, इतना कह कर उसकी मौसेरी बहन भाग गई, पर उस दिन मेरी होली-दिवाली सब हो गईं, उसकी मौसेरी बहन के द्वारा पत्रों का आदान-प्रदान होने लगा, उसकी मौसेरी बहन उसका पत्र फेंक जाती और मेरा ले जाती, हमारे बीच हमेशा यही दायरा बना रहा, दायरा तोड़ने का भी प्रयास नहीं किया, सब कुछ मस्त-मस्त चल रहा था, रात-दिन मैं उसे निहारता रहता या उसके पत्रों को पढता रहता, यही हाल उसका भी था, हम दोनों ही बहुत खुश थे, अब तक हमारे प्रेम प्रसंग की दास्ताँ चर्चा का आम विषय बन चुकी थी, लड़कियों ने अपनी भाभियों को बताया, भाभियों ने अपने पतियों को और पतियों ने बाक़ी सभी मर्दों को, जिससे बात हमारे घर तक पहुंचनी ही थी, पापा के संज्ञान में पहुँचते ही गधे वाली मार पड़नी ही थी, सो पड़ी, शरीर का कोई हिस्सा सही सलामत बचा ही नहीं था, जिससे कई दिनों तक बिस्तर की सेवायें ही लीं, साथ ही बाहर आकर मुंह दिखाने वाली भी अवस्था नहीं लग रही थी, इसलिए एक-दो दिन और ज्यादा आराम किया, लेकिन इस बीच उसका बुरा हाल हो गया, कई दिनों बाद देखी, तो मौत के निकट नज़र आई, पिटाई से इश्क का जो भूत उतरा था, वो और ऊपर पहुँच गया, इसी बीच उसके पापा व्यापार के सिलसिले में एक-दो दिन बाद आने की कह कर गए थे, लेकिन एक सप्ताह बाद भी नहीं लौटे, तो परिवार के साथ वो भी चिंतित हो गई, एक-दो दिन बाद पता चला कि उनकी ह्त्या हो चुकी है, इससे भी बड़े दुःख की बात यह थी कि हत्या कराने में मेरे पापा का नाम आ रहा था, यह आरोप मुझे और भी परेशान कर रहा था, मैंने जुट कर हत्या का खुलासा कराया, पता चला कि एक टपोरी किस्म के बदमाश ने लूट कर उन्हें एक कूएं में डाल दिया था, एक-दो महीने के बाद वो थोड़ी सही हुई, इधर मेरी शादी करने वाले पीछे पड़े थे, पापा को पता चल ही गया था कि उनका बेटा जवान होने के साथ नालायक भी हो गया, सो एक-दो दर्जन रिश्तों में से एक को हाँ बोल दी, तत्काल शादी करने की तारीख निश्चित कर दी गई, लग्नोत्सव वाले दिन मैं बैठने को तैयार ही नहीं था, लड़कियों की तरह अपने कमरे में रो रहा था, मम्मी, बुआ, मामी, दोस्त सहित तमाम रिश्तेदार समझा रहे थे कि बेटा औकात में आ जाओ, वरना विडियोग्राफी लग्न की जगह पिटाई की होगी, पर मैं नहीं माना, सभी मिल कर पापा से कह रहे थे कि कपडे पहन रहा है, लेकिन समय जब सीमा पार कर गया, तो पापा खुद ही कमरे में देखने आ गये, कमीनों ने हर कमरे में डंडा रख दिया था, जमकर पिटाई हुई, कुछ देर रोया, कुछ देर सुबका और उल्लू जैसे चेहरे के साथ आकर बैठ गया, रिकार्ड भीड़ के साथ, रिकार्ड फायरिंग हुई, ऐसे-ऐसे मीठे बने थे कि लोगों ने जीवन में पहली बार देखे, खाए और पापा की वाहवाही कर के सब चले गये, लग्न में क्या आया, कौन आया, क्या हुआ, कैसे हुआ, मुझे आज भी अच्छे से नहीं पता, अगले कुछ दिनों बाद की ही शादी की तारीख रखी गई, 21 फरवरी 1996 को बरात बरेली आ गई, विवाह हो गया, बहू लाकर मम्मी-पापा को दे दी, मेरे मन में उसके प्रति कोई भाव नहीं आया, सो सुहागरात को मैं उसके पास नहीं गया, मामी के कहने से कम, पिटाई के डर से ज्यादा, अगले दिन यही सोच कर गया कि कमरे सो जाउंगा, अन्दर पहुंचा तो मधु एक कोने में सजी संवरी बैठी थी, मैं आँखें बंद कर लेटने का नाटक कर रहा था, एक घंटे बाद भी जब वो अपनी जगह से नहीं हिली, तो मैंने कहा कि इस पैकिंग से बाहर आ जाओ और अच्छे से बैठ जाओ या सो जाओ, उसने मेरी बात मान ली, एक बात शुरू हुई तो उसकी बातें मुझे अच्छी लगती चली गई, दो दिन बाद वो चली गई, कुछ दिन बाद ही हम उसकी विदा करा लाये, इस बार आते ही उसने मेरा सब बहुत जल्दी अपना लिया, देखते-देखते वो मेरी जरूरत बन गई, मैं पूरी तरह उस पर ही डिपेंड हो गया, इसके बाद सत्रह साल कब गुजर गये पता ही नहीं चला, मैं आज उसके अवगुण निकालने बैठूं, तो चाह कर भी एक ऐसा अवगुण नहीं निकाल सकता, जिसको लेकर मैं उसकी आलोचना करने लगूं, प्रेमिका नहीं है, पर पत्नी के रूप में वह सर्वोत्तम नारी है, इसी लिए कभी किसी लड़की का मन में ख्याल तक नहीं आता था, इसके बाद भी तमाम घटनाएं जीवन घटती चली गईं, शादी के बाद मैं कुछ समय बरेली रहा, साथ में हमउम्र मामा भी थे, हम दोनों अपने में हर समय मस्त रहते, मामा की हर विषय पर बहुत अच्छी कमांड थी, मामा से पड़ोसन बोली, कि हमारी बेटी को कुछ देर अंग्रेजी और गणित पढ़ा दिया करो, मामा ने मना किया, पर उनके दबाव में मामा रोज शाम को एक घंटा उस लड़की को पढ़ाने लगे, एक दिन उस लड़की ने मामा पर छेड़ने का आरोप लगा दिया, मामा की घर में खूब फजीहत हो गई, मैं मामा को अच्छी तरह जानता हूँ, वो उस लड़की के साथ छिछोरी हरकत कर ही नहीं सकते, सबसे पहले तो वह स्वभाव से ऐसे नहीं हैं, दूसरे वो उन्हें अंकल कहती थी, तीसरा कारण यह है कि वो उसे पढ़ाते थे, मामा की इस फजीहत का मुझ पर गहरा प्रभाव पडा, पूरे मोहल्ले में चर्चित हंसता रहने वाला मेरा मामा गुमसुम हो गया, तो मैंने मामा से कहा कि अब जो होना था, सो हो गया, लेकिन यह सब पूरा कर के ही चैन से बैठेंगे, मामा के भाव फिर भी उसके प्रति अच्छे ही थे, बोले-बीकाम में पढती है, छोडो, कुछ दिन में सब सही हो जाएगा, पर मैंने उस लड़की से प्रेम का नाटक किया और उसे मामा के सामने बौना कर के ही चैन की सांस ली, बाद में मैंने उससे पूंछा भी कि तुमने मामा पर आरोप क्यूं लगाया, तो बोली कि मैं इन्हें प्यार करने लगी थी और यह देखते तक नहीं थे, इसलिए चिड कर ऐसा किया, उसने ठीक किया या गलत या मैंने ठीक किया या गलत, यह अभी तक नहीं सोचा है, इसके बाद एक रिश्तेदारी में मैं विवाह में शामिल होने गया था, लड़की की शादी थी, बरात आने से एक दिन अधिकाँश रिश्तेदार जमा हो गये थे, सो दूसरी मंजिल पर जमीन पर सब के बिस्तर लगा दिए गये, मैं देर रात तक हलवाइयों के पास ही बैठा रहा, दो बजे के करीब सोने आ गया, कुछ देर बाद मेरी रजाई में मुझे कुछ हरकत का आभास हुआ, नींद में ही महसूस करने का प्रयास किया, तो वह एक लड़की का हाथ था, यह जानते ही मेरी नींद गायब हो गई और डर गया, क्योंकि बराबर में बड़े लोग भी सो रहे थे, कई बार उसका हाथ रजाई से बाहर निकालने के बाद भी जब वह नहीं मानी, तो मेरे दिमाग में एक खुरापात आ गई, जहाँ मैं सोया था, वहीं मेरे सर के ऊपर एक अलमारी थी, जिसमें रखी केन में मेंथा आयल की कुछ बूंदे थीं, मैंने रजाई में उंगली से छेद कर थोड़ी रुई निकाली और आहिस्ता से केन उलटी कर रुई उसमें भिगो ली, फिर मैंने उस रुई का दुरुपयोग किया, उसकी ऎसी की तैसी हो गई, उस साल वह एमकाम फाइनल की छात्रा थी, आज दो बच्चों की माँ है और आज भी नाम सुनते ही गाली देती है, आजकल बहुत खुश होगी, बिल्कुल ऐसा ही सीन एक अन्य विवाह समारोह में भी हुआ, जहाँ मैं खुद को नहीं रोक पाया, लेकिन उस दिन के बाद हम आज तक मिले नहीं हैं, इसके बाद एक घटना और घटी, रिपोर्टर थी, न जाने कहाँ से और कैसे, उसे नंबर मिल गया, रोज रात को ग्यारह बजे फोन करने लगी, शुरू में शालीनता से बात करती थी, तो मैं करता रहता था, दो-तीन दिनों के बाद ही वह असली रूप में आने लगी, मैंने उसके कार्यालय में एक मित्र को फोन किया, उसके बारे में जानकारी ली तो पता चला कि वह टेलिफोनिया बीमारी से ग्रसित है, बात मैंने एक दम बंद कर दी, एक दिन संयोग से आमना-सामना हो गया, शर्म नाम की उसके पास कोई चीज ही नहीं थी, औकात से बाहर जाने लगी तो मैं उसे झटक चला आया और कड़ी हिदायत दे दी कि मुझ से किसी तरह का संपर्क बनाने की कोशिश भी की तो जेल भिजवा दूंगा, इतनी शराफत दिखाई उसने और मान गई, अब बात फेसबुक की करते हैं, तमाम कन्याओं ने मुझे मैसेज किये हैं, लेकिन मैंने आज तक किसी लड़की को हाय-हैलो कुछ नहीं लिखा, ऐसा नहीं है कि मैं स्वयं को रोक कर रखता था, वास्तव में मेरा ध्यान इस ओर था ही नहीं, एक दिन मेरे इनबाक्स में एक मैसेज आया, आप बहुत अच्छा लिखते हैं, पढ़ कर वहीं भूल गया, अगले दिन फिर मैसेज आया, फिर पढ़ कर अपने काम में लग गया, लेकिन इस बार मैसेज की बाढ़ आ गई, एक के बाद एक मैसेज, वो लड़की जवाब देने को लगातार दबाव बना रही थी, दो दिन तक मैंने कोई जवाब नहीं दिया, तीसरे दिन मैंने सिर्फ इतना लिखा कि आपको मेरा लिखा अच्छा लगता है, तो पढ़ते रहिये, इसमें मेरा आपसे बात करना जरूरी थोड़े ही है, खैर, इतना जवाब देने का मतलब था कि एक-दो सवालों के जवाब और दिए, झट से उसने अपना मोबाइल नंबर लिख दिया और बोली कि अपना नंबर भी दो, मैंने कहा कि मैं लड़कियों से बात नहीं करता, इसलिए नंबर नहीं दूंगा, दो दिनों तक मैंने नंबर नहीं दिया, इस बीच उसने मुझे मर्दों के नाम पर कलंक तक लिख दिया, बाद में नंबर दे दिया तो तत्काल काल आ गई, मैंने काल रिसीव नहीं की, तीन दिनों तक उसने मोबाइल पर तरह-तरह के सैकड़ों मैसेज भेजे, अंत में मैंने उसका नंबर ब्लाक कर दिया, तो नंबर बदल कर उसने फोन किया, काल रिसीव हुई, तो बात शुरू हो गई, दस दिनों के बाद बोली मेरा अमुक पेमेंट, अमुक चेक, अमुक रुपया आने वाला है, आते ही लौटा दूंगी, चार-पांच दिनों के लिए बीस हजार रूपये उधार दे दो, इधर-उधर दिमाग जा ही नहीं रहा था, सो मैंने उसके खाते में लड़का भेज कर रूपये डलवा दिए, जो दिन उसने बताया था, उसके दो दिन बाद मैंने कहा कि तुम्हारा चेक नहीं आया, उसने फिर नई कहानी सुनाई, फिर मैं समझ गया, मैंने सोचा, बीस हजार तो गये, बीस हजार और सही, मैंने उससे कहा कि मुझे फ़िलहाल पैसों की कोई जरूरत नहीं है, जब होगी, तब मांग लूंगा, उसके तो मन की हो गई, इसके बाद मैंने भी अपने मन की की, फिर उसे हर तरह से जलील किया, मैंने कहा कि मैं तो मर्द के नाम पर कलंक नहीं हूँ, पर तू औरत के नाम पर कलंक है, गरियाने के बाद उसे साफ़ चेतावनी दे दी कि आसपास भी नज़र आई, तो परिणाम बहुत बुरा होगा, साथ ही उस दिन मैंने अपने मन में यह कसम भी ली कि लड़की की परछाईं के पास से भी नहीं गुजरना है, लेकिन उत्तराखंड के मेरे पुश्तैनी ज्योतिषी ने मुझे बता रखा था कि तुम्हारी जिन्दगी में एक महिला पत्नी के रूप में अवश्य आयेगी, मैंने उन्हें फोन किया किया और पूंछा कि मेरे जीवन की दूसरी पत्नी वाली घटना का समय निकल गया या बाक़ी है और टालने का कोई उपाय है, कर्मकांडी या पाखंडी नहीं हूँ, पर ज्योतिष को मानता हूँ, उन्होंने एक उपाय सुझाया भी, पर कल करने के चक्कर में टल गया और मैं और चिदर्पिता संपर्क में आ गए, बातों-बातों में ही मेरी धड़कन कब उसकी धडकनों से चलने लगी, पता ही नहीं चला, उसकी साँसों से ही मेरा जीवन कब संचालित होने लगा, अहसास तक नहीं हुआ, हम दोनों पास आना भी नहीं चाह रहे थे, पर कब आ गये, पता ही नहीं चला, न मुझे पत्नी की जरूरत थी और न ही उसे पति की, पर कब बन गये, पता ही नहीं चला, जीवन का संपूर्ण सच आपके सामने रख दिया है, पहली वार हुए प्रेम का बचपन की यादों जैसा ही अहसास है, पर सुखद है और हमेशा रहेगा, लेकिन उस प्रेम की परिभाषा मुझे न तब पता थी और न ही आज पता है, इस प्रेम की अनुभूति रोम-रोम ने की है, ह्रदय से लेकर आत्मा तक में समाहित है ............... खैर, मैं जैसा भी हूँ, वैसा आपके सामने हूँ, लज्जा की देवी होती है, देवता नहीं होता, जीवन में लड़कियों के साथ जो घटनाएं हुई हैं, उन घटनाओं को लेकर उन लड़कियों को कोई शर्म नहीं है, तो मुझे किसी तरह की कोई ग्लानी क्यूं होनी चाहिए? ................ दुःख रहेगा, चिदर्पिता जैसा पति चाहती थी, वैसा पति न बन पाने का दुःख .............