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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Thursday 23 February 2012

होली से जुड़ी है गौतम राजपूतों की शौर्य गाथा


कण-कण में इतिहास समाया है, पर बदले समय के कारण इतिहास में दर्ज सैकड़ों गौरव गाथाओं पर धूल जम चुकी है। इतिहास के पन्नों पर जमा धूल को साफ कर अतीत में झांका जाये, तो पूर्वजों की शौर्य गाथाओं को जान कर आज भी सीना चौड़ा हो जाता है। गौतम राजपूतों की ऐसी ही एक गौरव गाथा इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों की तरह चमक रही है, जो होली के अवसर पर अनायास ही याद आ जाती है।
चौथी या पांचवी ईसवी से पहले बदायूं जनपद में गौतम राजपूत नहीं थे। कहा जाता है कि उस दौरान यहां हूणों का शासन था। उस समय राजस्थान में स्थित अलवर के राजा भवानी सिंह अपने परिवार के साथ भारत यात्रा पर निकले हुए थे। बताया जाता है कि उस समय के न्योधना व आज के कस्बा इस्लामनगर के पास उस दौरान विशाल वन था। इस वन से राजा भवानी सिंह का काफिला निकल रहा था, तभी उनके रथ का पहिया मिट्टी में धंस गया। सेवकों ने रथ निकाला, तब तक शाम हो गयी। इस लिए राजा भवानी सिंह ने वन में ही पड़ाव डालने के साथ काफिले को आराम करने का आदेश दे दिया। रात में बीच वन में चहल-पहल और रोशनी देख कर आसपास के क्षेत्र की जनता उत्सुकता के चलते वन में देखने पहुंच गयी, तो जनता को पता चला कि यहां राजा का डेरा पड़ा है। क्षेत्रीय जनता ने राजा भवानी सिंह को अवगत बताया कि इस क्षेत्र में हूणों का शासन है, जो बहुत अत्याचार करते हैं। जनता ने अत्याचार की दास्तां राजा को विस्तार पूर्वक बताई, तो जनता की परेशानी सुनकर राजा ने यात्रा पर आगे जाने का इरादा त्याग दिया और हूणों की शक्ति का आंकलन करने के लिए अपने गुप्तचर क्षेत्र में दौड़ा दिये। राजा भवानी सिंह ने रणनीति बना कर होली के अवसर पर रंग वाले दिन आक्रमण कर दिया। हूणों का इस्लामनगर (न्योधना) में किला था, जहां से उनका शासन संचालित होता था, उस भवन में आज पुलिस थाना चल रहा है। कहा जाता है कि कुछ सैनिकों के साथ उनकी पुत्री पड़ाव वाले स्थान पर ही रही और अलग-अलग दिशाओं में राजा ने सेना की टुकडिय़ों के साथ पांच पुत्रों को आक्रमण करने लिये भेजा, साथ ही उन्होंने स्वयं सैनिकों के साथ इस्लामनगर (न्योधना) पर आक्रमण किया। हूणों के साथ भयंकर युद्ध हुआ और अंत में इस्लामनगर (न्योधना) क्षेत्र में गौतम राजपूतों का राज कायम हो गया, लेकिन एक दु:खद घटना भी घटी। राजा भवानी सिंह और उनके बेटे युद्ध कर रहे थे, तभी कुछ हूणों ने डेरे पर हमला बोल दिया, लेकिन मौके पर मौजूद सैनिकों के साथ राजकुमारी ने हूणों के साथ जमकर युद्ध किया और सभी हूणों को मार दिया। कहा जाता है युद्ध में राजकुमारी गंभीर रूप से घायल हो गयीं, जिससे उन्हें बचाया नहीं जा सका। गांव भवानी पुर में राजकुमारी की याद में मंदिर बना हुआ है, जिसे आज सती माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है।
गौतम राजपूतों का शासन स्थापित हो जाने के बाद शासक परिवर्तित होते रहे और बाद में गुलामी के बाद प्रजातंत्र तक का सफर तय हुआ, लेकिन इस क्षेत्र में गौतम राजपूतों का दब-दबा आज तक कायम है। इस्लामनगर क्षेत्र में राजनीति की जमीन आज भी गौतम राजपूतों के इशारे पर ही तैयार होती है। इस ब्लाक क्षेत्र में आजादी से अब तक अधिकतम समय गौतम वंशीय ही प्रमुख रहा है, संभवता अब भी रहता, पर आरक्षण ने प्रमुख पद छीन लिया। हालांकि गत सत्र में ठा. श्रीपाल सिंह के घर जानवरों की सेवा करने वाले नौकर सीताराम चुने गये, जिससे अपरोक्ष रूप से ब्लाक प्रमुख वह ही माने जाते थे और मान-सम्मान ठा. श्रीपाल सिंह को ही मिलता था, इसी तरह जिन-जिन गांवों में गौतम वंशीय राजपूत हैं, उन गांवों में ग्राम पंचायत सदस्य से लेकर प्रधान या क्षेत्र पंचायत सदस्य पद तक पर, गौतम वंशीय राजपूतों का ही कब्जा रहता है। इस क्षेत्र का विशाल गांव है नूरपुर पिनौनी। यहां आजादी के बाद से लगातार ठा. केदार सिंह प्रधान रहे, बाद में उन्होंने पंडित लक्ष्मी नारायन दीक्षित को खुद प्रधान का पद सौंप दिया। इसके बाद हुए 1982 के चुनाव में गौतम वंशीय ठाकुर खड़ा नहीं हुआ, तो भगवान दास गुप्ता चुने गये, लेकिन अगले चुनाव में ठा. नरेशपाल सिंह खड़े हो गये, तो वह भारी मतों के अंतर से चुने गये। 1995 में आरक्षण लागू कर दिया गया और प्रधान पद महिला के लिए आरक्षित हो गया, तो उनकी पत्नी रामबाला सिंह चुनी गयीं व अगले वर्ष 2००० में प्रधान पद अनारक्षित हो गया, तो फिर ठा. नरेशपाल सिंह चुने गये, लेकिन वर्ष 2००5 में अनुसूचित वर्ग के लिए पद आरिक्षत हो गया, तो गौतम वंश की दूरी हो जाना स्वाभाविक थी। इसी तरह गांव भगवंत नगर में ठा. महीपाल सिंह का प्रधान पद पर कब्जा रहता है, पर आरक्षण ने गौतमों को भी पद विहीन कर दिया, लेकिन इलाके में आज भी गौतम वंशीय राजपूतों की उपस्थिति स्पष्ट दिखाई देती है। गौतम वंशीय बाहुल्य एक गांव वहांपुर पहले से ही मुरादाबाद जनपद में चला गया है, जो अब नवसृजित जनपद भीमनगर का हिस्सा है। इस गांव की पहचान ठा. रमेश सिंह के नाम से ही की जाती है। गौतम वंशीय राजपूतों की उपस्थिति इस्लामनगर क्षेत्र के पचास किलो मीटर वृत्त में ही है, क्योंकि बाकी क्षेत्र में गौतम राजपूत हैं ही नहीं।
गौतम वंशीय राजपूतों के साथ पूरे क्षेत्र की जनता के बीच स्वर्गीय ठाकुर मोती सिंह का नाम आज भी वंदनीय है, क्योंकि इन्होंने अपने जीवन काल में अंग्रेजों को क्षेत्र में घुसने भी नहीं दिया, पर षड्यंत्र के तहत खत्री वंश के एक स्वयं-भू राजा ने अंग्रेजों से मिल कर फांसी लगवा दी। लश्करपुर ओईया में आज भी उनकी समाधि बनी हुई है, जहां प्रतिदिन सैकड़ों लोग पूजा-अर्चना करते हैं। मुरादाबाद लोकसभा क्षेत्र से सांसद रह चुके चन्द्रविजय सिंह की जड़ें उसी खत्री परिवार से जुड़ी हुई हैं। कहा जाता है कि लश्करपुर ओईया के राजा के संतान नहीं थी, जिससे उन्होंने खत्री जाति के एक बच्चे को गोद ले लिया था, लेकिन उस खत्री जाति के बच्चे को किसी ने राजा वाला सम्मान नहीं दिया, जिससे वह स्वयं को अपमानित महसूस करता था, तभी ठा. मोती सिंह से ईष्र्या करता था। खत्री परिवार के गोद लिये हुए स्वयं-भू राजा प्रद्युम्र के भी एक मात्र इन्द्रमोहनी नाम की पुत्री ही जन्मी, जिसका विवाह मुरादाबाद जनपद के राजा का सहसपुर कस्बे में हुआ। इन्द्रमोहनी प्रदेश सरकार में विद्युत मंत्री रह चुकी हैं और चन्द्रविजय सिंह की मां हैं। स्वयं-भू राजा प्रद्युम्र के निधन के बाद लश्करपुर ओईया की संपत्ति इन्द्रामोहनी को ही मिली, लेकिन क्षेत्र में सम्मान न मिलने के कारण लश्करपुर ओईया की समस्त संपत्ति बेच दी, जिससे अब कुछ अवशेष ही बचे हैं।