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मैं उसका अंश हूँ, बस यही पहचान है मेरी...

Friday 25 November 2011

दलितों के सच्चे मसीहा थे ललई सिंह यादव

सच अक्सर कड़वा लगता है। इसी लिए सच बोलने वाले भी अप्रिय लगते हैं। सच बोलने वालों को इतिहास के पन्नों में दबाने का प्रयास किया जाता है, पर सच बोलने का सबसे बड़ा लाभ यही है कि वह खुद पहचान कराता है और घोर अंधेरे में भी चमकते तारे की तरह दमका देता है। सच बोलने वाले से लोग भले ही घृणा करें, पर उसके तेज के सामने झुकना ही पड़ता है। इतिहास के पन्नों पर जमी धूल के नीचेे ऐसे ही एक तेजस्वी तारे ललई सिंह यादव का नाम दबा है।
ललई सिंह यादव ऐसे योद्धा का नाम है, जिसने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की और उपेक्षितों को उनका हक दिलाने के लिए जीवन समर्पित कर दिया। जिला कानपुर के गांव कठारा रेलवे स्टेशन झींझग के रहने बाले गज्जू सिंह यादव और मूला देवी के घर 1 सिंतबर 1911 ई. को जन्मे ललई सिंह यादव पर अपने पिता का पूरा प्रभाव था। आर्य समाजी पिता गज्जू सिंह गलत बात बर्दास्त नहीं करते थे। सही बात के पक्ष में किसी का भी विरोध करने लगते थे। उस दौर में उस गांव में परंपरा थी कि दलित के घर बेटा होने पर ढोलक नहीं बजाने दी जाती थी। इस पुरानी परंपरा को गज्जू सिंह ने ही तुड़वाया। ऐसे पिता के बेटे ललई सिंह यादव ने सन 1926 में हिंदी व सन 1928 में उर्दू भाषा से मिडिल तक पढ़ाई की। पढ़ाई के बाद 1929 में वह वन विभाग में गार्ड की नौकरी करने लगे। गलत बात का तत्काल विरोध कर देते थे। जिससे समकक्ष सहकर्मियों में तो लोकप्रिय हो गये पर सजा के तौर पर कई बार निलंबित होना पड़ा। इस बीच 1931 में कानपुर के गांव जौला का पुरवा रूरा निवासी सरदार सिंह यादव की पुत्री दुलारी देवी से उनका विवाह हो गया। विवाह के बाद उन्होंने 1933 में सशस्त्र पुलिस बल की नौकरी के लिए आवेदन किया तो चुन लिये गये। सिपाहियों की हालत उनसे नहीं देखी गयी और यहां भी उन्होंने पुलिस के रहन-सहन को लेकर आवाज बुलंद करनी शुरु कर दी। विद्रोह के चलते 1935 में ललई सिंह यादव को बर्खास्त कर दिया गया। बाद में अपील पर सुनवाई हुई और एचजी वाटर फील्ड डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने बहाल कर दिये। 1936 में चीफ प्रोसीक्यूटिव इंस्पेक्टर पुलिस हाईकोर्ट एंड अपील डिपार्टमेंट में उनका तबादला कर दिया गया। एक वर्ष बाद वह हेड कांस्टेबिल के पद पर प्रोन्नत कर दिये गये। उपेक्षित व शोषित लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए कई साल बीत गये। 1942 में कांग्रेस का करो या मरो आंदोलन जोर पकड़ रहा था। उसी दौरान 1946 में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी नेता भीखम चंद की अध्यक्षता में बैठक हुई। जिसमें नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एवं आर्मी संघ की स्थापना की गयी और ललई सिंह यादव सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन लिये गये। वह पुलिस व आर्मी के जवानों को सुविधायें देने की लड़ाई लडऩे लगे तभी उन्हें साथियों के साथ जेल भेज दिया गया। पर ललई सिंह यादव ने जेल में भी आंदोलन छेड़ दिया और कैदियों की दशा को लेकर जंग शुरु कर दी। इस बीच 1925 में उनकी माता मूला देवी, 1939 में पत्नी दुलारी देवी, 1946 में बहिन शकुंतला और 1953 में पिता गज्जू सिंह का निधन हो गया। जिससे ललई सिंह यादव टूट गये और उनके अंदर सन्यासी जैसे भाव पैदा हो गये। सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक एवं धार्मिक कार्याे में वह बढ़-चढ़ कर रुचि लेने लगे। ललई सिंह यादव ने सामाजिक व धार्मिक असमानता को लेकर जंग शुुरु कर दी। स्पष्टवादी, निर्भीक और कडक़ती आवाज से प्रभावित होकर आरपीआई के नेता कन्नौजी लाल ने उन्हें पार्टी में आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने पार्टी की सदस्यता ले ली। वह बौद्ध धर्म में जाने के इच्छुक थे पर उनका प्रण था कि जिस गुरु से बाबा साहब अंबेडकर ने दीक्षा ली है उसी गुरु से वह दीक्षा लेंगे। उनके इस प्रण के चलते ही दीक्षा कार्यक्रम काफी दिनों तक टलता रहा। 21 जुलाई 1967 को उन्होंने कुशीनगर जाकर भदन्त चन्द्रमणि महास्थिविर से दीक्षा लेकर  बौद्ध धर्म भी स्वीकार कर लिया। 1964-65 में आरपीआई विखरने लगी तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी पर वह उपेक्षित वर्ग की आवाज बुलंद करने में जुटे रहे। इसी दौर में ब्राहमणवाद के घोर विद्रोही के रूप में रामास्वामी पेरियार ने दक्षिण भारत से आवाज बुलंद कर रखी थी। उनके द्वारा लिखित द रामायन-ए ट्रू रीडिंग की बहुत चर्चा हो रही थी। ललई सिंह यादव रामास्वामी पेरियार के सपंर्क में आये और उनकी रामायण का हिंदी अनुवाद करने का आग्रह किया। अनुमति मिलते ही उन्होंने सच्ची रामायण नाम से हिंदी संस्करण निकाल दिया। इस रामायण के छपते ही हिंदू समुदाय, खास कर ब्राहमणों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो प्रदेश सरकार ने इस रामायण पर प्रतिबंध लगाते हुए रामायण की प्रतियां जब्त करा लीं। ललई सिंह यायव ने अदालत की शरण ली। हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट से ललई सिंह यादव की ही जीत हुई। उनकी सच्ची रामायण को प्रतिंबध मुक्त कर दिया गया। इस रामायण में भगवान श्रीराम को लेकर आपत्तिजनक बातें कही गयी हैं। उन्हें शूद्रों का द्रोही करार देते हुए दक्षिण भारतीयों का भी दुश्मन बताया गया है। इसी तरह उनकी किताब सच्ची रामायण की चाभी को भी प्रतिबंधित कर दिया गया पर अदालत से ललई सिंह यादव ही जीते। उन्होंने शोषितों पर धार्मिक डकैती, शोषितों पर राजनीतिक डकैती, अंगुलिमाल नाटक, संत माया बलिदान नाटक, शम्बूक बध नाटक, एकलव्य नाटक, नाग यज्ञ नाटक व सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो जैसी क्रांतिकारी किताबों की रचना की। 24 दिसंबर 1983 ई. को रामास्वामी पेरियार का निधन हो गया। ललई सिंह यादव शोक सभा में पहुंचे तो चर्चा के बाद विचार हुआ कि हमारा अगला पेरियार कौन?... भीड़ से आवाज आयी ललई सिंह यादव, तो ललई सिंह यादव पूरी तरह पेरियार के कार्य को ही आगे बढ़ाने लगे। ललई सिंह यादव हिंदू धर्म को उधार का धर्म और बौद्ध धर्म को नकद का धर्म बताते थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को नकद का धर्म बता कर काफी चर्चित किया। तर्क देते हुए कहते थे कि विश्व के सभी देशों का कानून बौद्ध धर्म पर आधारित हैं। इस लिए सच्चा धर्म बौद्ध धर्म ही है। वे कहते थे कि आज अच्छे कार्य करो तो अगले जन्म में बेहतर परिणाम मिलेंगे पर बौद्ध धर्म में अच्छे काम करो और तत्काल अच्छे परिणाम भी ले लो। उनकी भाषा में जा हाथ देब और वा हाथ लेब। ललई सिंह यादव सिर्फ उपदेश ही नहीं देते थे। वह वैरागी भाव में निर्भीक और निडरता के साथ अपने शुभचिंतकों पर भी कटाक्ष करते थे। आगरा में एक सम्मेलन के दौरान उन्होंने आयोजकों और सम्मेलन में आये लोगों को ही डांटना शुरु कर दिया। बोले-मेरे पास जो लोग मंच पर बैठे हैं एवं जो लोग सामने बैठे हैं वह सब सहायताइष्ट, वजीफाइष्ट और रिजर्वेशनाइष्ट हैं, आप में से कोई भी बौद्धिष्ट व अम्बेडकराइष्ट नहीं है। बौद्ध धर्म के विद्धानों ने विरोध किया तो बोले-जब तक आप बौद्धों में रोटी-बेटी का सम्बंध नहीं बनायेंगे और हिंदू रीति-रिवाजों और त्योहारों को मनाना नहीं छोड़ेंगे तब तक तक आपका बौद्ध होना सिर्फ ढोंग ही है। 1987 में अपनी समस्त संपत्ति कानपुर के अशोका पुस्तकालय को दान दे दी। सामाजिक परिवर्तन का यह साहसी योद्धा 7 फरवरी 1993 को शरीर छोड़ गया।
ललई सिंह यादव के उक्त संक्षिप्त जीवन परिचय पर ही अगर गंभीरता और ईमानदारी से गौर किया जाये तो अहसास होगा कि ललई सिंह यादव सामान्य नहीं बल्कि असामान्य व्यक्ति या महापुरुष थे। उन्होंने अपना जीवन, धन-संपत्ति या यूं कहें कि सब कुछ समाज सेवा में ही लगा दिया। पूरा जीवन शोषितों और उपेक्षितों के उत्थान में लगा दिया। ऐसे ललई सिंह यादव के साथ आज उपेक्षा ही की जा रही है। ललई सिंह यादव के नाम में ही यादव जातिसूचक शब्द लगा है जिससे जाति बताने की जरूरत नहीं है। पर अपरोक्ष रूप से यादवों एवं परोक्ष रूप से पिछड़ों की राजनीति करने बाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव या भाजपा से विद्रोह करने के बाद खुद को कभी हिंदुओं का तो कभी पिछड़ों का नेता बताने बाले कल्याण सिंह के मुंह से शायद ही किसी ने ललई सिंह यादव का नाम सुना होगा। इनके शासनकाल में भी ललई सिंह यादव को विशेष सम्मान नहीं दिया गया। दलितों की हितैषी होने का दावा करने बाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेता कभी ललई सिंह यादव का नाम नहीं लेते। इसी तरह जातियों की जगह सिर्फ हिंदुत्व की बात करने बाली भाजपा ने भी ललई सिंह यादव को कभी महापुरुष नहीं माना। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में उपेक्षित, शोषित और दलित वर्ग की हिमायती कही जाने बाली बहुजन समाज पार्टी की मायावती के नेतृत्व में सरकार है पर ललई सिंह यादव का नाम आज भी अपने स्थान को तरस रहा है हालांकि ललई सिंह यादव जैसे योद्धा के लिए किसी स्थान या सम्मान की जरूरत नहीं है क्यों कि ललई सिंह यादव तो खुद एक सम्मान का नाम है।
यादव जाति में जन्म होने के कारण ललई सिंह यादव को दलित वर्ग ज्यादा पसंद नहीं करता। भले ही यादव या पिछड़ों में पैदा हुए पर ललई सिंह यादव ने उपेक्षित, शोषित और दलितों के न्याय व सम्मान की आवाज उठायी, इस लिए पिछड़े वर्ग के नेता पसंद नहीं करते। सवर्ण तो न पहले पसंद करते थे और न आज करेंगे। पर किसी के पसंद करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों कि ललई सिंह यादव के कार्यों ने उन्हें जाति-धर्म से ऊपर उठा दिया है। इस लिए वह हमेशा याद रखे जायेंगे।